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Saturday, September 15, 2012

Decline Of Free BHARAT

 भारत का पराभव :


ऐसेशक्तिशालीअर्थ-व्यवस्था को लेकर क्या होगा जिस राष्ट्र का ८० प्रतिशत जन-संख्या ( १०० कड़ोड़) गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करती है ? जिस देश की आम जनता २० रूपये की दैनिक आमदनी पर निर्भर है, जिस देश के अधिकाँश लोग भूखे सोने को बाध्य हैं उस देश के प्रधानमन्त्री देश के सशक्तिकरण करने के नाम पर, जनता के नाम पर, जनहित के नाम पर देश को पुनः विदेशियों के हाथ बेच डालने पर आमादा है ; वर्ष १९९१ से उदारीकरण के नाम पर जो खेल राजनीतिज्ञों ने खेला है सभी के सामने है ; साल दर साल लम्बी होती बी पी एल की सूची, जिसके अन्दर के लोगों ने '९१ से १२ के सितम्बर तक तो उदारीकरण के लाभ को तो देख नहीं पाए ; न मिली शिक्षा न मिला स्वास्थ्य, न मिली रोटी न मिला मकान, न मिली बिजली न मिला रोजगार, पैदल चलने वालों को सड़क का क्या सरोकार, मिला तो मिला बस महंगाई, बेरोजगारी, भूख, बेबसी, दीनता-दयनीयता, कष्ट और पीड़ा के साथ-साथ अगर मिला तो मिला दिन प्रतिदिन भ्रष्ट होती राज्य-व्यवस्था, चोर-बेईमान होते राज्य-प्रशासन, क्रूर-निरंकुश होते जन प्रतिनिधि, हिंसक और अमानवीय होते सुरक्षा प्रहरी, अनैतिकता और अवैधानिकता को हर कदम लांघती राज्य सत्ता के कारण लोकतंत्र, प्रजातंत्र और गणतंत्र लांछित होती रही और जनता मुंह ताकती रही. 

स्वाधीन भारत पहले कल्याणकारी राज्य स्वीकृत हुआ था, 1991 में उदारीकरण के पश्चात वाणिज्यिक राज्य हो गया ; व्यवसाय धर्म हो गया एक ऐसे राष्ट्र का जिसका मर्म था त्याग और सेवा ! स्वाधीन भारतवर्ष का ह्रदय विदीर्ण हो गया, संविधान के अन्तः स्थल में जिस गणतंत्र की स्थापना की गयी थी वह लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद आधारित राष्ट्र की परिकल्पना थी. परन्तु भारत उस पथ पर चल पड़ा जो समाजवाद के सिद्धांतों के एकदम विपरीत था और समाजवाद परिवर्तित होकर पूंजीवाद में विश्वास करनेवाला राष्ट्र हो गया ; समाजवाद सर्वे भवन्तु सुखिनः में विश्वास रखता है वहीँ पूंजीवाद व्यक्तिगत उन्नयन में ___ पूंजीवाद भारत के त्याग और सेवा के भाव को विल्कुल ही मटियामेट कर गया वहीँ पूंजीवाद ने मानव को सर्वोच्च संकुचित भाव के पथ पर डाल दिया.
हमारी लोकतान्त्रिक सरकारों ने समाजवाद के स्थान पर पूंजीवाद को संवैधानिक दायित्वों और दायरों के इतर बेहतर मान व्यावसायिकता को अपने मुख्य-धारा में अंगीकार कर लिया. राज्य-सत्ता के कर्तव्य हीनता को उन्नत करने के बदले व्यवसायी बनना उचित समझा और पुरे राष्ट्र को विश्व के कुछ पश्चिमी-यूरोपीय देशों की अन्धानुकरण करने पर बाध्य कर दिया.
भारतीय समाज में व्यवसाय और व्यवसायी को कभी उच्च श्रेणी में नहीं गिना जाता रहा है, व्यवसायी अपने आर्थिक हितों की क्रूरता के लिए जाना जाता है ; व्यवसाय में लाभ अर्जित करने हेतु व्यवसायी किसी भी सीमा तक ठगी करता है, बेईमानी करता है, निसंदेह मुँह पर हंसी का मुस्कान विखेर ग्राहक का आर्थिक शोषण-दोहन करता है ; व्यवसायी वर्ग दीन-हीन-गरीबों का शत्रु होता है, यह जग-जाहिर है ; व्यवसायिओं का कोई मित्र नहीं होता वह अपना हित-अहित-लाभ कमाने की द्रिस्टी रखता है अन्यथा वह किसी ग्राहिकी को पहचानता तक नहीं_इस चरित्र का व्यक्ति, समूह या संगठन कभी कोई सामाजिक हित साधने में अपनी आस्था नहीं रखता ; रखता है तो बस अपनी लाभ-हानि का हिसाब और बही-खाता. मनुष्यता अथवा मानवता का कोई अर्थ नहीं व्यावसायिक अथवा वित्तीय चरित्र में. वह क्रूर होता है, विद्रूप होता है, शोषक होता है, चोरी, बेईमानी, ठगी इसका धर्म है यह कोई अतिशयोक्ति नहीं वरन सोलहो आने सच है. और व्यापार करने वालों के निर्मम शिकार का प्रथम लक्ष्य गरीब, दुखी, दरिद्र, निर्बल, अशक्त, अवसरविहीन मानवता पहले स्थान पर होती है.
वैशवीकारण के नाम पर हमारा स्वाधीन भारत उन गिने चुने व्यापारी देशों के भुलावे में व्यवसायिकता को स्वीकार कर अपने मूल चरित्र को ही बंधक बना गया, उन पश्चिमी देशों की परिस्थिति स्वतंत्र होकर विकास करने की रही थी जबकि हम उनके अधीन परतंत्रता की बेरी को काट कर दीनता-हीनता से मुक्त होने के लिए ही तथा स्वयं के विकसित होने के लिय बलिदान देकर अभी-अभी स्वाधीनता पायी थी. उनकी सड़ी-गली आर्थिक नीतियाँ जिसके बल पर वे राष्ट्र उन्नति के उच्चतम शिखर पर पहुँच वापसी करने लगे थे, उत्पादकता के चरमोत्कर्ष के लिए उनके पास ग्राहक नहीं थे, उनके देशी बाज़ार में क्रय शक्ति घटती जा रही थी, बड़े-बड़े काल-कारखाने जो उन्होंने लगा रखे थे उसके उत्पादन का खपत दिनानुदिन निम्तम स्तर को पहुँच रहा था, उनकी जनसंख्या-उपभोक्ता सिमित हो गयी थी, खरीदार के अभाव में आर्थिक मंदी का होना निश्चित जान पड़ता था एक तरफ बाजारवाद उनके ही देश में आप्रासांगिक हो आर्थिक अवनति की ओर चल चुकी थी तो दूसरी ओर उनकी कुटिल दृष्टि उन देशों की ओर लगी थी जो जनसंख्या बाहुल्य देश थे वहाँ वे अपनी ग्राहकी को लालायित हो वैश्वीकरण की निति घोषित करने लगे, जहां वे अपने उत्पादन को बेचकर अपनी आर्थिक उदासी को समाप्त करने की योजना को क्रियान्वित करने लगे ; भारतवर्ष भी उनमे एक था जिसकी जनसंख्या और विकसित होने की तीव्र लालसा उनके अनुकूल और उपयोगी थी. भारतीय नेतृत्व नए नवेले राष्ट्र की राज्य-सत्ता पाकर दिनानुदिन मदांध हो निरंकुश होते गए, परतंत्र भारत की कराहती, दुखी, व्यथित जनता अपने प्रतिनिधियों के हाथ बागडोर सौंप निशिंत होती गयी और गलती यंहीं हो गयी....!
 सारे के सारे अनैतिक और अवैधानिक कार्य जनता के नाम पर प्रारम्भ होने लगे ,  यह सब किया गया जनहित के नाम पर ! कैसी बिद्म्बनापूर्ण स्थिति है देश की ; स्वतंत्र भारत में कुछ नहीं बदला. बदला है तो नाम, भारतवर्ष से इंडिया हो गया और इस अंग्रजी नाम को पाकर इंडिया अंग्रेजों की निति और प्रशासन को पुनः अपना लिया. पुनः परतंत्र हो गया राजनितिक नहीं वरन आर्थिक गुलामी कर पश्चिमी देशों का फिर गुलाम हो गया! 





      

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